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Dalit Chetna Ki Kahaniyan : Badalati Paribhashayen दलित चेतना की कहानियाँ : बदलती परिभाषाएँ

By: Material type: TextTextLanguage: Hindi Publication details: New Dilhi Vani Prakashan 2010Description: 133ISBN:
  • 978-8181438140
Subject(s): DDC classification:
  • H891.309 SHAD
Summary: कहानी, आज साहित्य की अन्य विधाओं को अपदस्थ करती और नव्यतम विधाओं में घुसपैठ करती नज़र आती है। वैसे तो आज चर्चा के केन्द्र में है-स्त्री और दलित साहित्य। हिन्दी दलित साहित्य में मराठी जैसी दलित संवेदना और सौन्दर्य-बोध का विकास नहीं हो पाया। इनकी कहानियाँ और आत्मकथ्य भी राजनीतिक छल-छद्म मात्र हैं। सच तो यह है कि इनसे श्रेष्ठ दलित रचनाएँ दलितेतर रचनाकारों ने लिखीं। पर अधिकांश तथाकथित दलित कर्णधार इन्हें दलित साहित्य मानने के लिए तैयार नहीं। ठीक यही स्थिति महिला रचनाकारों की है। वस्तुतः उनके अनुभव उनके अपने ही हो सकते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं, किन्तु अभिव्यक्ति की दिशा दशा 'साहित्य' का अभिप्रेत नहीं । संवेदना, गहन संवेदना की अनुभूति तथा उसकी अभिव्यक्ति का प्रयास इस काल की कहानी को जन-सामान्य से सचमुच जोड़ता है और रचनाकार की संवेदना पाठकीय संवेदना, जन-सामान्य की संवेदना, लोक-जीवन की संवेदना बनकर वर्षों बाद उभरती है। इनमें विचार भी है, पर बोझिलता नहीं। पठनीयता भी है और है चरित्र, जो इतिहास का अंग है। वैयक्तिकता, अकेलापन, कुण्ठा, सन्त्रास, सेक्स, व्यर्थता-बोध, शोषण, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, व्यवस्था का कुचक्र आदि चालू फार्मूलों से अलग जीवन को नये सिरे से व्याख्यायित करती जीवन्त, लोकजीवन के व्यापक सार्थक सरोकार से समृद्ध हैं ये कहानियाँ। इनमें नैतिकता और मानवीय मूल्यों की पुनस्थार्पना का प्रयास है। जीवन-मूल्य की नयी स्थापना, करुणा-सम्पृक्त स्थापना है।
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कहानी, आज साहित्य की अन्य विधाओं को अपदस्थ करती और नव्यतम विधाओं में घुसपैठ करती नज़र आती है। वैसे तो आज चर्चा के केन्द्र में है-स्त्री और दलित साहित्य। हिन्दी दलित साहित्य में मराठी जैसी दलित संवेदना और सौन्दर्य-बोध का विकास नहीं हो पाया। इनकी कहानियाँ और आत्मकथ्य भी राजनीतिक छल-छद्म मात्र हैं। सच तो यह है कि इनसे श्रेष्ठ दलित रचनाएँ दलितेतर रचनाकारों ने लिखीं। पर अधिकांश तथाकथित दलित कर्णधार इन्हें दलित साहित्य मानने के लिए तैयार नहीं। ठीक यही स्थिति महिला रचनाकारों की है। वस्तुतः उनके अनुभव उनके अपने ही हो सकते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं, किन्तु अभिव्यक्ति की दिशा दशा 'साहित्य' का अभिप्रेत नहीं । संवेदना, गहन संवेदना की अनुभूति तथा उसकी अभिव्यक्ति का प्रयास इस काल की कहानी को जन-सामान्य से सचमुच जोड़ता है और रचनाकार की संवेदना पाठकीय संवेदना, जन-सामान्य की संवेदना, लोक-जीवन की संवेदना बनकर वर्षों बाद उभरती है। इनमें विचार भी है, पर बोझिलता नहीं। पठनीयता भी है और है चरित्र, जो इतिहास का अंग है। वैयक्तिकता, अकेलापन, कुण्ठा, सन्त्रास, सेक्स, व्यर्थता-बोध, शोषण, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, व्यवस्था का कुचक्र आदि चालू फार्मूलों से अलग जीवन को नये सिरे से व्याख्यायित करती जीवन्त, लोकजीवन के व्यापक सार्थक सरोकार से समृद्ध हैं ये कहानियाँ। इनमें नैतिकता और मानवीय मूल्यों की पुनस्थार्पना का प्रयास है। जीवन-मूल्य की नयी स्थापना, करुणा-सम्पृक्त स्थापना है।

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